न्याय या अन्याय?

जिस देश में एक बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित है, उस देश में कानून का पेंचीदा होना और उससे भी ऊपर कानूनी आदेशों का कानून से भी अधिक पेंचीदा होना अन्याय है।

सामान्य कानून सरल क्यों नही हैं? कितने ही मामलों में पेंचीदगी की जरूरत नहीं। कानूनी आदेश स्पष्ट और सरल क्यों नहीं होते? क्यों किसी आदेश को समझने के लिए विशेषज्ञों की एक पूरी टोली चाहिए होती है?

अगर किसी भी कानून की व्याख्या अलग अलग विशेषज्ञ अलग अलग करें तो समस्या व्याख्या में नही, कानून में है। और अगर किसी आदेश की व्याख्या भी अलग अलग हो सके, फिर न्यायधीश ही समस्या हैं।

न्यायालयों और न्यायधीशों के सामने बेगुनाह आम जनता डरी सहमी रहती है और कानूनी पेंचीदगियों के जानकार गुनहगार विश्वस्त और आश्वस्त। ये स्थिति सड़ी हुई न्याय व्यवस्था और शक्ति के मद में चूर न्याय के पुरोधाओं के कारण है।

अगर भारत किसी एक व्यवस्था में सबसे ज्यादा विफल रहा है, किसी भी एक क्षेत्र में, तो वह न्याय व्यवस्था ही है। न्याय का न मिलना या अत्यधिक देर से मिलना या जटिल न्यायिक प्रक्रिया या न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होना, ये आम बात है।

क्या न्यायधीशों ने अपनी न्याय व्यवस्था पर बनी लोकोक्तियां, जैसे "कोर्ट कचहरी के चक्कर लगवाना", "पुलिस स्टेशन के चक्कर लगवाना" जैसी शर्मशार करने वाली लोकोक्तियों का संज्ञान लिया है? ये लोकोक्तियों पिछले कई दशकों से न्यायिक प्रक्रिया और व्यवस्था पर घिनौने दाग हैं। जिसको सही करता कोई भी नही दिख रहा।

कानून का पहला काम निर्दोषों, निरपराधों को संरक्षित करना है। भारतीय कारागारों में "under trial" कैदियों की संख्या ये दर्शाता है कि हमारी न्याय व्यवस्था, निरपराधों के संरक्षण में कितनी विफल ही रही है।

कानून सभी के लिए बराबर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि अधिकतर लोग कानून के विशेषज्ञ नही होते और कुछ विशेषज्ञ नैतिक नही होते। सामाजिक न्याय की बात करने वाले इस देश में असली न्याय ही बड़ी जनसंख्या को नसीब नही होती।

कानूनी प्रक्रिया में सुधार एक बड़ी जरूरत है इस देश की।

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