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ब्राह्मण

ब्राह्मण, सामाजिक न्याय के दौर का सबसे अभिशप्त शब्द। भारतीय परिवेश में सामाजिक न्याय ठीक वैसे ही दूषित है जैसा धर्मनिरपेक्षता। और इन दूषित शब्दों के बीच फंसा है ब्राह्मण। ब्राह्मण, जिन्हें धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय, दोनों का ही दोषी माना गया है। मैं जातिवाद का धुरविरोधी हूं, किन्तु जब तक मेरे देश के सरकारी प्रपत्रों में जाति का कॉलम रहेगा, जातिवाद भी जीवित रहेगा। आजादी के ७३ सालों के बाद भी अगर सामाजिक न्याय राजनैतिक मुद्दा बना रहे तो वह सामाजिक न्याय रास्ता भटक चुका है। सामाजिक न्याय के अनेकानेक पुरोधा स्वयं सामर्थ्यवान हो चुके हैं और अपनी कई पुश्तों के लिए पूंजी जोड़ चुके हैं। अब बात न्याय की करते हैं। न्याय आप किस से और कब लेते हैं? अगर एक समुदाय के एक व्यक्ति का कोई दोष हो तो क्या आप उस समुदाय को दोषी मानते हैं? नहीं ना। तो फिर कुछ पीढ़ियां पहले दिए गए त्रास के लिए आज की पीढ़ी के लोगों से बदला कैसा? सामाजिक बुराइयों के लिए ब्राह्मणों को अक्सर दोष दिया जाता है। कुछ हद तक ठीक भी है। क्यूंकि छुआछूत जैसी भ्रांतियां अभी भी देश में है। मगर छुआछूत अब शहरों में, विद्यालयों और संस्थान